Sunday 1 March 2015

कर्कटेश्वर शिव मंदिर वेपतूर ,जिला तंजावूर (तमिळनाडू) कावेरी नदी के किनारे

कर्कटेश्वर शिव मंदिर वेपतूर ,जिला तंजावूर (तमिळनाडू) कावेरी नदी के किनारे

कर्कटेश्वर शिव मंदिर कावेरी नदी किनारे तंजावूर जिले के वेपतूर तमिल नाडु
कुछ मंदिरों में भी जाना हुआ था.  दिखाई गई तस्वीरों में से एक हमें अजीब सी लगी.  एक शिव  लिंग दिख रहा था और उसके सामने केकड़े जैसी एक आकृति थी. हमने उससे पूछा कि यह कहाँ की है तो स्पष्ट  कुछ बता सकने में असमर्थ रही. केवल इतनी जानकारी मिली कि कहीं दीवार या खम्बे में बनी  थी. हालाकि तस्वीर कुछ भोंडी सी ही है लेकिन सामने एक चुनौती तो थी ही. हमने घर में सबसे पूछा कि क्या दिख रहा है. किसी को गणेश की सूंड नज़र आ रही थी तो किसी को मकड़ी. मुझे एक केकड़ा दिख रहा था. लेकिन समझ में यह नहीं आ रही थी कि वहां केकड़ा या मकड़ी क्यों बनाई गई होगी.
क्या मकड़ी ने शिव की पूजा की थी और उत्तर में हमें वह आंध्र  में श्रीकालहस्ति पहुंचा दिया. तब पता चला कि मकड़ी के लिए ही  श्रीप्रयुक्त हुआ है. अब क्योंकि हमें मालूम था कि भतीजी तो श्रीकालहस्ति गई ही नहीं थी इसलिए दूसरे  विकल्प केकड़ेका प्रयोग किया. बडी सुखद अनुभूति रही यह जानकार कि तंजावूर के  पास कर्कटेश्वर के नाम से एक शिव मंदिर भी है. साथ लिए गए और कुछ चित्र भी थे जिनसे मिलान करने पर पुष्टि हो गई. कहानी कुछ इस प्रकार है:
एक बार ऋषि दुर्वासा तपस्यारत थे. उधर से गुजरते हुए एक गन्धर्व ने कोई ऐरागैर समझ कर दुर्वासा के बुढापे का बहुत मजाक उड़ाया परन्तु उन्होंने कोई प्रतिक्रिया प्रकट नहीं की. दुर्वासा की चुप्पी देख गन्धर्व जोर जोर से ताली बजाने लगा.  अपनी  तपस्या में व्यवधान से त्रस्त होकर दुर्वासा कुपित हुए और उस गन्धर्व को श्राप देकर केकड़ा बना दिया. गन्धर्व को अपनी गलती का जब एहसास हुआ तो दुर्वासा के सामने क्षमा याचना करते हुए  गिडगिडाने लगा. श्राप मुक्ति के लिए दुर्वासा ने केकड़ा बन चुके गन्धर्व को शिव के आराधना की सलाह दी.
कावेरी नदी के उत्तरी किनारे की रेत पर पहले से एक शिव लिंग विद्यमान था. वहीँ असुरों पर विजय प्राप्ति के लिए इंद्र देव शिव की पूजा हेतु फूल इकठ्ठा कर रखता.  केकड़े के रूप में गन्धर्व उन फूलों में से एक उठा लाता और  शिव लिंग पर अर्पित करता. इंद्र के फूलों की संख्या 1008 नहीं हो पाती थी. हर रोज एक फूल कम पड़ जाने के रहस्य का इंद्र को भान हुआ तो गुस्से में आकर केकड़े पर तलवार चला दी. इसके पहले कि केकड़े पर तलवार लग पाती शिव जी ने अपने लिंग में एक छिद्र बना दिया और केकड़े को  छुप जाने के लिए जगह बना दी. तलवार की वार शिव लिंग पर पड़ गई. शिव जी ने प्रकट होकर इंद्र की उद्दंडता  की भर्त्सना की और  विनम्र होने की नसीहत भी दी.
कर्कटेश्वर शिव मंदिर कावेरी नदी किनारे तंजावूर जिले के वेपतूर..

कहते हैं एक बार एक चोल राजा लकवे से ग्रसित हो गया. सभी प्रकार का उपचार प्रभावहीन रहा तब राजा ने शिव की आराधना की.  एक दिन एक वृद्ध  दम्पति उस राजा से मिलने आई और जल में  पवित्र भभूत मिलाकर पीने दिया. वह एक चमत्कार ही था जिससे राजा एकदम ठीक हो गया. राजा ने उस दम्पति को अपने यहाँ राज वैद के रूप में नियुक्त करना चाहा परन्तु  यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं हुआ. इसपर राजा ने उन्हें  स्वर्ण, हीरे, जवाहरात आदि देने की कोशिश की और दम्पती ने उन्हें भी ठुकरा दिया. अंततः दम्पति ने राजा से नदी किनारे स्थित शिव लिंग के लिए मंदिर बनाए जाने का आग्रह भर किया. राजाने उन्हें शिव और पर्वती मानते हुए इनकी इच्छानुसार एक मंदिर का निर्माण करवा दिया.
क्योंकि इस जगह केकड़े रुपी गन्धर्व को भगवान् शिव ने मोक्ष प्रदान  किया था इसलिए यहाँ शिव जी कर्कटेश्वरकहलाये. ऐसा विश्वास किया जाता है कि यहाँ के  शिव लिंग में बने  छिद्र में ही केकड़ा छुप गया था और इंद्र द्वारा तलवार चलाये जाने से बना निशान भी लिंग पर बना हुआ है. इस मंदिर में गणेश, कार्तिकेय के अतिरिक्त अम्बिका (पार्वती) की  दो मूर्तियाँ हैं. पहले बनी मूर्ति गायब हो गई थी तो दूसरी बनाई  गई, फिर पुरानी भी मिल गई, अतः दोनों की प्रतिष्ठा हो गई थी.

यह मंदिर कावेरी नदी किनारे तंजावूर जिले के वेपतूर के पास है  और सम्बन्दर नामके शिव भक्त (नायनार) ने अपने तेवारम (काव्य संग्रह) में इस मंदिर  का गुणगान  किया हुआ है.  लोगों में ऐसा विश्वास है कि इस मंदिर में जाने से केंसर सहित सभी व्याधियां दूर हो जाती हैं.
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कमलनाथ महादेव मंदिर - झाडौल उदयपुर – यहां भगवान शिव से पहले की जाती है रावण की पूजा

कमलनाथ महादेव मंदिर - झाडौल उदयपुर –
यहां भगवान शिव से पहले की जाती है रावण की पूजा  
झाडौल तहसील में आवारगढ़ की पहाडिय़ों पर शिवजी का एक प्राचीन मंदिर स्थित है जो की कमलनाथ महादेव के नाम से प्रसिद्ध है

झीलों की नगरी उदयपुर से लगभग 80 किलोमीटर  झाडौल तहसील में आवारगढ़ की पहाड़ियों पर शिवजी का एक प्राचीन मंदिर स्तिथ है जो की कमलनाथ महादेव के नाम से प्रसिद्ध है। पुराणों के अनुसार इस मंदिर की स्थापना स्वंय लंकापति रावण ने की थी।  यही वह स्थान है जहां रावण ने अपना शीश भगवान शिव को अग्निकुंड में समर्पित कर दिया था जिससे प्रसन्न होकर भगवान शिव नें रावण की नाभि में अमृत कुण्ड स्थापित किया था। इस स्थान की सबसे बड़ी विशेषता यह है की यहां भगवान शिव से पहले रावण की पूजा की जाती है क्योकि मान्यता है की शिव से पहले यदि रावण की पूजा नहीं की जाए तो सारी पूजा व्यर्थ जाती है।

पुराणो में वर्णित कमलनाथ महादेव की कथा :

एक बार लंकापति रावण भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए कैलाश पर्वत पर पहुंचे और तपस्या करने लगे, उसके कठोर तप से प्रसन्न हो भगवान शिव ने रावण से वरदान मांगने को कहा। रावण ने भगवान शिव से लंका चलने का वरदान मांग डाला। भगवान शिव लिंग के रूप में उसके साथ जाने को तैयार हो गए, उन्होंने रावण को एक शिव लिंग दिया और यह शर्त रखी कि यदि लंका पहुंचने से पहले तुमने शिव लिंग को धरती पर कहीं भी रखा तो मैं वहीं स्थापित हो जाऊंगा। कैलाश पर्वत से लंका का रास्ता काफी लम्बा था, रास्ते में रावण को थकावट महसूस हुई और वह आराम करने के लिए एक स्थान पर रुक गया। और ना चाहते हुए भी शिव लिंग को धरती पर रखना पड़ा।

आराम करने के बाद रावण ने शिव लिंग उठाना चाहा लेकिन वह टस से मस ना हुआ, तब रावण को अपनी गलती का एहसास हुआ और पश्चाताप करने के लिए वह वहीं पर पुनः तपस्या करने लगे।  वो दिन में एक बार भगवान शिव का सौ कमल के फूलों के साथ पूजन करते थे। ऐसा करते-करते रावण को साढ़े बारह साल बीत गए। उधर जब ब्रह्मा जी को लगा कि रावण की तपस्या सफल होने वाली है तो उन्होंने उसकी तपस्या विफल करने के उद्देश्य से एक दिल पूजा के वक़्त एक कमल का पुष्प करा लिया।  उधर जब पूजा करते वक़्त एक पुष्प कम पड़ा तो रावण ने अपना एक शीश काटकर भगवान  शिव को अग्नि कुण्ड में समर्पित कर दिया। भगवान शिव रावण की इस कठोर भक्ति से फिर प्रसन्न हुए और वरदान स्वरुप उसकी नाभि में अमृत कुण्ड की स्थापना कर दी। साथ ही इस स्थान को कमलनाथ महादेव के नाम से घोषित कर दिया।

पहाड़ी पर मंदिर तक जाने के लिए आप नीचे स्तिथ शनि महाराज के मंदिर तक तो अपना साधन लेके जा सकते है पर आगे का 2 किलोमीटर का सफर पैदल ही पूरा करना पड़ता है। इसी जगह पर भगवान राम ने भी अपने वनवास का कुछ समय बिताया था।

ऐतिहासिक महत्त्व भी है आवरगढ़ की पहाड़ियों का :
झालौड़ झाला राजाओ की जागीर था। इसी झालौड़ से 15 किलोमीटर की दुरी पर आवरगढ़ की पहाड़ियों पर एक किला आज भी मौजूद है इसे महाराण प्रताप के दादा के दादा महाराणा ने बनवाया था यह अवारगढ़ के किले के प्रसिद्ध है। जब मुग़ल शासक अकबर ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया था, तब आवरगढ़ का किला ही चित्तौड़ की सेनाओं के लिए सुरक्षित स्थान था।  सन 1576 में महाराणा प्रताप और अकबर की सेनाओं के मध्य हल्दी घाटी का संग्राम हुआ था।  हल्दी घाटी के समर में घायल सैनिकों को आवरगढ़ के इसी किले में उपचार के लिए लाया जाता था। इसी हल्दीघाटी के युद्ध में महान झाला वीर मान सिंह ने अपना बलिदान देकर महाराणा प्रताप के प्राण बचाये थे।

झालौड़ में सर्वप्रथम यही होता है होलिका दहन :
हल्दी घाटी के युद्ध के पश्चात झाडौल जागीर में स्थित पहाड़ी पर जहाँ आवरगढ़ का किला स्थित है, वहीँ पर सन 1577  में  महाराणा प्रताप ने होली जलाई थी। उसी समय से समस्त झालौड़ में सर्वप्रथम इसी जगह होलिका दहन होता है। आज भी प्रतिवर्ष महाराण प्रताप के अनुयायी झालौड़ के लोग होली के अवसर पर पहाड़ी पर एकत्र होते है जहाँ कमलनाथ महादेव मंदिर के पुजारी होलिका दहन करते है। इसके बाद ही समस्त झालौड़ क्षेत्र में होलिका दहन किया जाता है।  झाडौल के लोगों की होली देश के अन्य लोगों को प्रेरणा देती है, कि कैसे हम अपने त्यौहारों को मानते हुए अपने देश के गौरवशाली अतीत को याद रख सकते हैं।

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इस ग्रंथ पर भगवान शिव ने किए थे हस्ताक्षर लिखा था- सत्यं शिवं सुंदरम्

इस ग्रंथ पर भगवान शिव ने किए थे हस्ताक्षर
लिखा था- सत्यं शिवं सुंदरम्
 
इस ग्रंथ पर भगवान शिव ने किए थे हस्ताक्षर
धर्म ग्रंथों के अनुसार मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी (इस बार 7 दिसंबर, शनिवार) को भगवान श्रीराम का विवाह सीता से हुआ था और इसी दिन गोस्वामी तुलसीदासजी ने श्रीरामचरितमानस को पूर्ण लिखी थी। श्रीरामचरितमानस में भगवान श्रीराम के जीवन का अद्भुत और सुंदर वर्णन मिलता है।
1- श्रीरामचरितमानस के लेखक गोस्वामी तुलसीदास थे| इनका जन्म संवत् 1554 में हुआ था। जन्म के समय बालक तुलसीदास रोए नहीं थे बल्कि उनके मुख से राम शब्द निकला। इसी से ही उनका नाम रामबोला पड़ा | जन्म से ही उनके मुख में 32 दांत थे। काशी में शेषसनातनजी के पास रहकर तुलसीदासजी ने सालों तक वेद-वेदांगों का ज्ञान प्राप्त किया |
2- संवत् 1583 में तुलसीदासजी का विवाह हुआ। वे अपनी पत्नी से बहुत प्यार करते थे। एक बार जब उनकी पत्नी अपने पीहर गईं तो पीछे-पीछे ये भी वहां पहुंच गए। पत्नी ने जब देखा तो उन्होंने तुलसीदासजी से कहा कि जितना तुम्हरा मुझमें ध्यान है, उससे आधा भी यदि भगवान में होती तो तुम्हारा कल्याण हो जाता। पत्नी की यह बात तुलसीदासजी को चुभ गई और उन्होंने गृहस्थ आश्रम त्याग दिया व साधुवेश धारण कर लिया।
3- एक रात तुलसीदासजी सो रहे थे तो उन्हें स्वप्न आया। सपने में भगवान शिवजी ने उन्हें आदेश दिया कि अयोध्या में जाकर रहो और हिंदी में काव्य रचना करो। मेरे आशीर्वाद से तुम्हारी कविता सामवेद के समान फलदायक होगी। भगवान शिव की आज्ञा मानकर तुलसीदासजी अयोध्या आ गए।
4- संवत् 1631 को रामनवमी के दिन वैसा ही योग था जैसा त्रेतायुग में रामजन्म के समय था। उस दिन तुलसीदासजी ने श्रीरामचरितमानस की रचना प्रारंभ की। 2 वर्ष, 7 महीने व 26 दिन में ग्रंथ की समाप्ति हुई। संवत् 1633 के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में रामविवाह के दिन इस ग्रंथ के सातों कांड पूर्ण हुए और भारतीय संस्कृति को श्रीरामचरितमानस के रूप में अमूल्य निधि प्राप्त हुई।
5- यह ग्रंथ लेकर तुलसीदासजी काशी गए। रात के समय तुलसीदासजी ने यह किताब भगवान विश्वनाथ के मंदिर में रख दी। सुबह जब मंदिर के द्वार खुले तो उस पर लिखा था- सत्यं शिवं सुंदरम्। और नीचे भगवान शंकर के हस्ताक्षर थे। उस समय उपस्थित लोगों ने सत्यं शिवं सुंदरम् की आवाज भी अपने कानों से सुनी।
6- अन्य पंडितों ने जब यह बात सुनी तो उनके मन में तुलसीदासजी के प्रति जलन होने लगी। उन्होंने दो चोर श्रीरामचरितमानस को चुराने के लिए भेजे। चोर जब तुलसीदासीजी की कुटिया के पास पहुंचे तो उन्होंने देखा कि दो वीर धनुष बाण लिए पहरा दे रहे हैं। वे बड़े ही सुंदर और गौर वर्ण के थे। उनके दर्शन से चोरों की बुद्धि शुद्ध हो गई और वे भगवान भजन में लग गए।
7- एक बार पंडितों ने श्रीरामचरितमानस की परीक्षा लेने की सोची। उन्होंने भगवान काशीविश्वनाथ के मंदिर में सबसे ऊपर वेद, उनके नीचे शास्त्र, शास्त्रों के नीचे पुराण और सबसे नीचे श्रीरामचरितमानस ग्रंथ रख दिया। मंदिर बंद कर दिया गया। सुबह जब मंदिर खोला तो श्रीरामचरितमानस वेदों के ऊपर रखा हुआ था | यह देखकर पंडित लोग बहुत शर्मिंदा हुए। उन्होंने तुलसीदासजी से क्षमा याचना की और श्रीरामचरितमानस के सर्वप्रमुख ग्रंथ माना।
8- इस ग्रंथ में रामलला के जीवन का जितना सुंदर वर्णन किया गया है, यही कारण है कि श्रीरामचरितमानस को सनातन धर्म में विशेष स्थान प्राप्त है। रामचरित मानस में कई ऐसी चौपाई भी तुलसीदास ने लिखी है जो विभिन्न परेशानियों के समय मनुष्य को सही रास्ता दिखाती है तथा उनका उचित समाधान भी करती हैं।
क्या है महादेव से जुड़ी 8 रहस्यमय बातें?
 
क्या है महादेव से जुड़ी 8 रहस्यमय बातें
धर्म शास्त्रों के अनुसार प्रकृति में ही भगवान शिव का रूप समाहित है। सभी देवता भगवान शिव के आदेशानुसार ही कार्य करते है। हिंदू धर्म शास्त्रों के अनुसार भगवान शिव पूरे संसार में 8 रूपों में समाए हुए है। भगवान शिव के 8 रूप शर्व, भव, रुद्र, उग्र, भीम, पशुपति, ईशान और महादेव है।
शिव के ये 8 रूप 8 मूर्तियों द्वारा भूमि, जल, अग्रि, वायु, आकाशक्षेत्रज्ञ, सूर्य और चन्द्रमा को नियंत्रित करते है। भगवान शिव के इन 8 रूपों से जुड़ी 8 रहस्यमय बातें इस प्रकार है -
शर्व
यह पूरे संसार को धारण करने वाले पृथ्वीमयी मूर्ति के स्वामी है। इसे शिव की शार्वी प्रतिमा भी कहा जाता है।
भीम
यह भगवान शिव की आकाशरूपी मूर्ति है। जो बुरे और तामसी गुणों का नाश कर संसार में सुख-समृद्धि देने वाली मानी जाती है। इस मूर्ति के स्वामी भीम है और यह भैमी नाम से प्रसिद्ध है।
उग्र
यह वायु रूप में पूरे संसार को गति प्रदान करती है और पालन-पोषण करती है। इस मूर्ति के स्वामी उग्र है और यह औग्री के नाम से प्रसिद्ध है।
भव
शिव की यह जल से युक्त मूर्ति पूरे संसार को प्राणशक्ति और जीवन देती है। इसके स्वामी भव है और यह भावी नाम से रौद्री नाम से प्रसिद्ध है।
रुद्र
यह भगवान शिव की ओजस्वी मूर्ति है, जो समस्त संसार के अंदर-बाहर फैली ऊर्जा व गतिविधियों में स्थित है। इसके स्वामी रूद्र है और यह रौद्री नाम से प्रसिद्ध है।
पशुपति
यह मूर्ति सभी आत्माओं की नियंत्रक है। यह संसार में पशु यानी दुर्जन वृत्तियों का नाश करती है और उनसे मुक्ति दिलाती है।
ईशान
यह सूर्य रूप में आकाश में चलते हुए संपूर्ण संसार को प्रकाशित करती है।
महादेव
यह चन्द्र रूप में शिव की साक्षात मूर्ति है। चन्द्र रूप में शिव की यह मूर्ति महादेव के रूप में प्रसिद्ध है।
भगवान शिव की पूजा ही पूरे प्रकृति की पूजा है। सभी की भलाई, मदद या उपकार करना ही शिव की वास्तविक पूजा है। धार्मिक मान्यता के अनुसार संसार में सुख-समृद्धि होने पर ही भगवान शिव प्रसन्न होते है।
विशेष मंत्र से तोड़ा गया फूल शिवलिंग पर चढ़ाने पर धन की प्राप्ति होगी
विशेष मंत्र से तोड़ा गया फूल शिवलिंग पर चढ़ाने पर धन की प्राप्ति होगी

हिंदू धर्म शास्त्रों के अनुसार पेड़-पौधों में भी देवताओं का वास होता है और यह पूजनीय माने जाते है। इन पेड़-पौधों की पूजा करने पर और इनसे प्राप्त फूल-पत्तों को देवताओं पर चढ़ाने पर विशेष लाभ प्राप्त होता है।
भगवान शिव को भी फूल-पत्ते चढ़ाने पर मंगलकारी फल प्राप्त होता है। परंतु इन फूलों को शिवलिंग पर चढ़ाने से पहले तोड़ते समय विशेष मंत्रों का जप बताया गया है। पेड़-पौधों से फूल को तोड़ने से पहले इस विशेष मंत्र का जप करें उसके पश्चात शिवलिंग पर इस तोड़ें गये फूल को चढ़ाएँ। ऐसा करने से घर में सुख-समृद्धि बनी रहेगी और विशेष धन लाभ होगा।
फूल तोड़ने से पहले स्नान करके आचमन करें। इसके पश्चात हाथ जोड़कर पूर्व दिशा की ओर मुँह करके इस मंत्र का जप करते हुए फूल तोड़ें।
मा नु शोकं कुरुष्व त्वं स्थानत्यागं च मा कुरु।
देवतापूजनार्थाय प्रार्थयामि वनस्पते।।
हिंदू धर्म शास्त्रों में यह भी विधान है कि पहला फूल तोडने पर ऊँ वरुणाय नम:, दूसरा फूल तोड़ते समय ऊँ व्योमाय नम: और तीसरा फूल तोड़ते समय ऊँ पृथिव्यै नम: मंत्र का जप करें।
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अनोखा शिवलिंग इस पर महमूद गजनवी ने खुदवाया था कलमा - सरया तिवारी गोरखपुर

अनोखा शिवलिंग  इस पर  महमूद गजनवी ने खुदवाया था कलमा - सरया तिवारी गोरखपुर



गोरखपुर से 25 किमी दूर खजनी कस्‍बे के पास एक गांव है सरया तिवारी। यहां  पर महादेव का एक अनोखा शिवलिंग स्‍थापित है जिसे झारखंडी शिव कहा जाता है। मान्‍यता है कि यह शिवलिंग कई सौ साल पुराना है और यहां पर इनका स्वयं प्रादुर्भाव हुआ है। यह शिवलिंग हिंदुओं के साथ मुस्लिमों के लिए भी उतना ही पूज्‍यनीय है क्योंकि इस शिवलिंग पर एक कलमा (इस्लाम का एक पवित्र वाक्य) खुदा हुआ है।

लोगों के अनुसार महमूद गजनवी ने इसे तोड़ने की कोशिश की थी, मगर वह सफल नहीं हो पाया। इसके बाद उसने इस पर उर्दू में 'लाइलाहाइल्लललाह मोहम्मदमदुर्र् रसूलुल्लाह' लिखवा दिया ताकि हिंदू इसकी पूजा नहीं करें। तब से आज तक इस शिवलिंग की महत्ता बढ़ती गई और हर साल सावन के महीने में यहां पर हजारों भक्‍तों द्वारा पूजा अर्चना किया जाता है।
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आज यह मंदिर साम्प्रदायिक सौहार्द का एक मिसाल बन गया है क्योंकि हिन्दुओं के साथ-साथ रमजान में मुस्लिम भाई भी यहाँ पर आकर अल्लाह की इबादत करते है।

कहते है की यह एक स्वयंभू शिवलिंग है। लोगों का मानना है कि इतना विशाल स्वयंभू शिवलिंग पूरे भारत में सिर्फ यहीं पर है। शिव के इस दरबार में जो भी भक्‍त आकर श्रद्धा से कामना करता है, उसे भगवान शिव जरूर पूरी करते हैं।
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पोखरे में नहाने से ठीक हो जाता है चर्म रोग

पुजारी आनंद तिवारी, शहर काजी वलीउल्लाह और श्रद्धालु जेपी पांडे के मुताबिक इस मंदिर पर कई कोशिशों के बाद भी कभी छत नही लग पाया है। यहां के शिव खुले आसमान के नीचे रहते हैं। मान्‍यता है कि इस मंदिर के बगल मे स्थित पोखरे के जल को छूने से एक कुष्‍ठ रोग से पीड़ित राजा ठीक हो गए थे। तभी से अपने चर्म रोगों से मुक्ति पाने के लिये लोग यहां पर पांच मंगलवार और रविवार स्‍नान करते हैं और अपने चर्म रोगों से निजात पाते हैं।
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